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ओज (स्)  : पुं० [सं० उब्ज् (सीधा होना)+असुन्, बलोप] [वि० ओजस्वी, ओजित] १. वह सक्रिय शारीरिक शक्ति जिसके आधार पर प्राणी जीवित रहते हैं तथा परिश्रम, साहस आदि के काम करते हैं। (विगर)। विशेष—वैद्यक के अनुसार, यह शरीर में बननेवाले रसों का भाग है। २. साहित्य में कविता, भाषण लेख आदि का वह गुण जिससे सुननेवाले के चित्त में आवेश, साहस आदि का संचार होता है। ३. उजाला। प्रकाश।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
ओज (स्)  : पुं० [सं० उब्ज् (सीधा होना)+असुन्, बलोप] [वि० ओजस्वी, ओजित] १. वह सक्रिय शारीरिक शक्ति जिसके आधार पर प्राणी जीवित रहते हैं तथा परिश्रम, साहस आदि के काम करते हैं। (विगर)। विशेष—वैद्यक के अनुसार, यह शरीर में बननेवाले रसों का भाग है। २. साहित्य में कविता, भाषण लेख आदि का वह गुण जिससे सुननेवाले के चित्त में आवेश, साहस आदि का संचार होता है। ३. उजाला। प्रकाश।
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